गिरकर पुनः उठना ।
(सूर्य ) अजीब हो आप जो दिया निस्वार्थ सबको प्रकाश सुबह बनाकर जगा देते हो जीने की आश। पौधे भी मुस्कुराते हैं जब सुबह आपको पाते है प्रकाश संश्लेषण से खुद के जीवन चलाते हैं। न मनुष्य से माँगा भोजन , न घर ,न माँगा सहारा सूर्य, पृथ्वी ,पानी और भी इनकी मिलकर सब नानी मनुष्य को बहुत संभाला। डूबकर 'उग ' पुनः खड़ा हो जो उसे कहते हैं सूरज अपने स्वार्थ में मनुष्य बन रहा है मूरख। मिटाकर प्रकृति को अपनी जिंदगी जीना , नहीं है कलाकारी। खुद को मिटाकर भी जो तुम्हे जिंदगी दे (पौधा) इस तरह मिट जाना उसका भविष्य के लिए होगा विनाशकारी। रूबी सिंह