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गिरकर पुनः उठना ।

(सूर्य ) अजीब हो  आप जो दिया निस्वार्थ सबको प्रकाश  सुबह बनाकर जगा देते हो जीने की आश।  पौधे भी मुस्कुराते हैं जब सुबह आपको पाते है  प्रकाश संश्लेषण से खुद के जीवन चलाते हैं।   न मनुष्य से  माँगा भोजन , न घर ,न माँगा सहारा  सूर्य, पृथ्वी ,पानी और भी इनकी मिलकर सब  नानी  मनुष्य को  बहुत संभाला। डूबकर 'उग  ' पुनः खड़ा हो जो  उसे   कहते हैं सूरज  अपने स्वार्थ में मनुष्य बन रहा है मूरख।  मिटाकर प्रकृति को अपनी जिंदगी जीना , नहीं है कलाकारी।   खुद को मिटाकर भी जो तुम्हे जिंदगी दे (पौधा)  इस तरह मिट जाना उसका   भविष्य के लिए  होगा विनाशकारी।      रूबी सिंह   

मैं भी एक इंसान हु , हाँ ये मेरी गलती है की मैं एक किसान हूँ -

देता हु मैं  सबको अन्न ,प्रफुल्लित   हो उठता हैं सबका तन-मन   कभी रातो को मैं  सोता नहीं , ठण्ड में भी मैं कपकपाता नहीं  मिटटी से भरे पानी में पैर हैं ,अँधेरे के शर्द हवाओ में।  कैसे चुकाउ खेतो के पैसे ,कहा  से लाऊ बच्चो के फीस  यही रात में सोचते- सोचते ,हम किसान हैं सुबह को जागते ।  पापा नई कॉपी दिलादो ,मुझको भी थोड़ा पढ़ा दो  छूना चाहते है हम भी चाँद, बनना है हमे आपकी शान   ये सब सुन पापा के आखो में आ गए पानी  पानी से याद आया खेतो में भरे पानी के पैसे भी देने है।  न पैरो में जूते  न तन पे चमकते कपडे  चले बचाने लगाकर दौड़ नीली गाय से अपने फसलें।  कभी बाढ़ आ जाता है तो कभी सूखे है पड़ते  है बहुत दयनीय जिंदगी क्योकि मैं एक किसान हूँ  तुम सबके अरमान हु क्यों फिर भी भूल जाते हो  की मैं भी एक इंसान हु , हाँ  ये मेरी गलती है की मैं एक किसान हूँ।  रूबी सिंह